भगवान शंकर (Bhagwan Shankar) अपने ललाट अर्थात भृकुटी के अंत में मस्तक पर त्रिपुंड तिलक (Tripund Tilak) लगाते हैं, जो भस्म (Basam) या चंदन (Chandan) से तीन रेखाएं से बनाई जाती हैं। शैव संप्रदाय के लोग इसे धारण करते हैं।
शिव महापुराण (Shiv Mahapuran) के अनुसार त्रिपुंड की तीन रेखाओं में से हर एक में नौ-नौ देवता निवास करते हैं। इसे लगाने से आ सिर्फ आत्मा को परम शांति मिलती है बल्कि सेहत की दृष्टि से भी चमत्कारिक लाभ देती है।
त्रिपुंड दो प्रकार का होता है। पहला-तीन धारियों के बीच में लाल रंग का एक बिंदु होता है। यह बिंदु शक्ति का प्रतीक होता है। आम इंसान को इस तरह का त्रिपुंड नहीं लगाना चाहिए। दूसरा-सिर्फ तीन धारियों वाला तिलक या त्रिपुंड। इससे मन एकाग्रचित होता है।
त्रिपुंड त्रिलोक्य और त्रिगुण का प्रतीक है जो सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का प्रतीक भी और यह चंदन का या भस्म का होता है। चूँकि त्रिपुण्ड चंदन या भस्म का ही लगाया जाता है, दोनों ही मस्तक को शीतलता प्रदान करते हैं।
गले में मुंडमाला (Mundmala)
भगवान शिव (Lord Shiva) इस जगत के संहारक (Exterminator) है, इसलिये उन्हें महाकाल (Mahakaal) भी कहा गया है। भगवान शंकर के गले में जो 108 मुंडो की मुंडमाला है, इस बात का प्रतीक है कि भगवान शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है।
रुद्राक्ष (Rudraksh)
मान्यता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसुओं से हुई थी। रूद्राक्ष को शिव की आंख कहा जाता है। रुद्राक्ष दो शब्दों के मेल से बना है। पहला रूद्र का अर्थ होता है भगवान शिव और दूसरा अक्ष इसका अर्थ होता है आंसू। रुद्राक्ष भगवान शिव के नेत्रों से प्रकट हुई वह मोती स्वरूप बूँदें हैं, जिसे ग्रहण करके समस्त प्रकृति में आलौकिक शक्ति प्रवाहित हुई तथा मानव के हृदय में पहुँचकर उसे जागृत करने में सहायक हो सकी।
धार्मिक ग्रंथानुसार 21 मुख तक के रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं, परंतु वर्तमान में 14 मुखी के पश्चात सभी रुद्राक्ष अप्राप्य हैं। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है तथा रक्त प्रवाह भी संतुलित रहता।