1. एक मुख्य आचार्य व चार सहायक आचार्य होने चाहिए। क्योंकि मुख्य आचार्य स्वयं व्यास स्वरूप है तो सहायक चार आचार्य चार वेद स्वरूप है।
2. मुख्य आचार्य व सहायक आचार्य श्रुतिस्मृति पुराण आदि के साथ तत्ववेत्ता होने चाहिए ताकि कथा का मर्म समजा शके।
3. सभी आचार्य स्वशाखा से उपनीत भक्ष्याभक्ष्यादि आहार,विहार से शुध्द एवं धर्मशास्त्र का पूर्णतः अनुगमन करते होना चाहिए।
4. प्रतिदिन कथा के अंत में सामान्य जन से वार्तालाप कर उनके शास्त्रीय प्रश्न का समाधान करना चाहिए।
5. व्यासपीठ से फ़िल्मी गाना बजाना एवं मनोरंजन कतई नहीं करना चाहिए पीठ की गरिमा समझकर गंभीरता से प्रत्येक विषय को प्रस्तुत करना चाहिए।
6. कथा में अधिक से अधिक स्वयं का मत व चर्चा कम शास्त्र के संदर्भ अधिक होने चाहिए।
7. खासकर भक्ति मार्गीय कथा में आचार्यगण को शांत रहना चाहिए भजन कीर्तन आदि करते समय पीठ पर नृत्य मुद्रा उचित नहीं है।
8. व्यासपीठ पर बैठकर केवल स्वधर्म का ही प्रचार करना चाहिए अन्य का नहीं।
9. अशास्त्रीय व अनावश्यक वचन कतई कहने नहीं चाहिए।
10. कथा के सिवा अन्य विषय पर कतई भटकना नहीं चाहिए।
11. श्रोताओं को धर्म उपदेश के साथ नीति उपदेश, व स्वधर्म पालन का उपदेश अवश्य बताना चाहिए।
12. सनातन धर्म के पशस्त मानबिंदु एवं मुलसिद्धान्तों से श्रोताओं को अवगत कराना चाहिए।
13. स्त्री शरीर को व्यासपीठ पर बैठना अशास्त्रीय है। और इनसे उपदेश लेना भी अशास्त्रीय है। तो कथावाचिकाओ से दूर रहना चाहिए।
इसी तरह व्यासपीठ का शोधन हो सकता है, भगवान वेदव्यास जी की गरिमा बनी रहती है। इसीतरह कथाओं के नाम पर फैले पाखण्ड को बंद किया जा सकता है।
आओ करे व्यासपीठ का शोधन।
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