विचार

अपना घर तक नहीं बनवा सके थे पूर्व पीएम Morarji Desai और Gulzari Lal Nanda

खांटी गांधीवादी गुलजारी लाल नंदा (Gulzari Lal Nanda) तीन बार भारत के कार्यवाहक-अंतरिम प्रधानमंत्री रहे.एक बार वे विदेश मंत्री भी बने। आजादी की लड़ाई में गांधी के अनन्य समर्थकों में शुमार नंदा को अपना अंतिम जीवन किराये के मकान में गुजारना पड़ा।

भारत देश में राजनीति और राजनीतिज्ञों की चर्चा जब भी कहीं चलती है तो आम आदमी उनके प्रति घृणा के भाव से सोचते हैं।लोगों की नजरों में राजनीति अब कमाई का जरिया बन चुकी है। सेवा, समर्पण,त्याग और ईमानदारी के जो गुण पहले के राजनीतिज्ञों में होते थे, वे अब सिरे से नदारद हैं। विदित हो कि आजादी के पूर्व और उसके बाद कई ऐसे नेता भारत में हुए, जो आज के राजनीतिज्ञों के आईकॉन बन सकते हैं, पर ऐसा नहीं हो पा रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन प्रतिनिधियों को मिलने वाली सुविधाएं-सहूलियतें लोगों को आकर्षित करती हैं, पर चुनाव जीत पाना आम आदमी के बूते की बात नहीं रह गई है।

विधायकी, सांसदी, एमएलसी या स्थानीय निकायों के चुनाव जीतने के लिए भारी भरकम रकम चाहिए। यह रकम उन्हीं के पास होगी, जिनके पास इसके जायज-नाजायज सोर्स होंगे। चुनाव में टिकटों के बिकने की बात हम सुनते आये हैं।जन प्रतिनिधि बनने से पहले और उसके बाद की घोषित आय में आसमानी इजाफा भी किसी से नहीं छिपा हुआ है।

हाल ही में बिहार में एमएलसी की 24 सीटों पर चुनाव हुए। उम्मीदवारों में अपवाद स्वरूप ही किसी की संपत्ति करोड़ से नीचे रही हो।अब तक की जो स्थिति रही है,उसे देखकर यही अनुमान लगाया जा सकता है कि पांच साल बाद इन प्रतिनिधियों की संपत्ति कई गुनी बढ़ चुकी होगी। बहरहाल राजनीति का एक दौर देश ने ऐसा भी देखा है कि कई लोग पीएम-सीएम रहे, लेकिन अपने लिए वे एक अदद घर नहीं बनवा सके। इनमें ज्यादातर तो अब इस दुनिया में नहीं रहे, लेकिन कुछ अब भी जीवित हैं। आइए, जानते हैं राजनीति के इन रत्नों के जीवन के बारे में…

गुलजारी लाल नंदा रहते थे किराये के मकान में
खांटी गांधीवादी गुलजारी लाल नंदा (Gulzari Lal Nanda) तीन बार भारत के कार्यवाहक-अंतरिम प्रधानमंत्री रहे.एक बार वे विदेश मंत्री भी बने। आजादी की लड़ाई में गांधी के अनन्य समर्थकों में शुमार नंदा को अपना अंतिम जीवन किराये के मकान में गुजारना पड़ा। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में 500 रुपये की पेंशन स्वीकृत हुई तो उन्होंने इसे लेने से यह कहकर इन्कार कर दिया था कि पेंशन के लिए उन्होंने लड़ाई नहीं लड़ी थी। बाद में मित्रों के समझाने पर कि वे एक किराये के मकान में रहते हैं तो किराया कहां से देंगे, तब उन्होंने पेंशन कबूल की थी।

किराया बाकी रहने के कारण एक बार तो मकान मालिक ने उन्हें घर से निकाल भी दिया था। बाद में इसकी खबर अखबारों में छपी तो सरकारी अमला पहुंचा और मकान मालिक को पता चला कि उसने कितनी बड़ी भूल कर दी है। ऐसे राजनेता को राजनीति का रत्न कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, जो पीएम और केंद्रीय मंत्री रहने के बावजूद अपने लिए एक अदद घर नहीं बना सके और उन्होंने किराये के मकान में अपनी जिंदगी गुजार दी।

मोरारजी देसाई भी नहीं बनवा सके थे खुद का मकान
मुम्बई प्रांत के सीएम, देश के डिप्टी पीएम, कई बार केंद्रीय मंत्री और आखिरी बार पीएम रहने के बावजूद मोरारजी देसाई (Morarji Desai) अपने लिए मकान नहीं बनवा सके। किराये के घर में ही वे जीवन के अंतिम समय तक रहते रहे। 29 फरवरी 1896 को जन्मे मोरारजी देसाई ब्रिटिश काल में डिप्टी कलेक्टर रहे। मोरारजी का अपने कलेक्टर से मतभेद हो गया। उसके बाद उन्होंने 1930 में नौकरी छोड़ दी। फिर महात्मा गांधी के आह्वान पर स्वतंत्रता आंदोलन के सिपाही बन गये।

आजादी मिलने के बाद 1952 में वे मुम्बई प्रांत के मुख्यमंत्री बने। बाद में केंद्रीय मंत्री, उप प्रधानमंत्री और 1977-79 के दौरान प्रधानमंत्री के पद पर भी वे आसीन रहे। लेकिन आश्चर्य यह कि उन्होंने अपने लिए कोई घर नहीं बनवाया। किराये के मकान में सामान्य जीवन यापन किया। 1975 में इंदिरा गांधी ने जब इमरजेंसी लगाई तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।

मोरारजी की सादगी का आलम यह था कि एक बार प्रधानमंत्री रहते हुए उनका पटना आगमन हुआ। उनके विश्राम के लिए प्रोटोकाल के हिसाब से राजभवन में व्यवस्था की गई थी। रात में उन्होंने वातानुकूलित कमरे में सोने की बजाय राजभवन के खुले हिस्से में मच्छरदानी लगाकर रात की नींदें पूरी की। उनकी सादगी और ईमानदारी की तारीफ उनके निधन के वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी की थी।

मोरारजी की सादगी और ईमानदारी इससे भी समझी जा सकती है कि उन्हें प्रधानमंत्री रहते हुए जब भी विदेश यात्रा करनी पड़ी, वे सेवा विमान से गये। उन्होंने विशेष विमान से इसलिए परहेज किया कि देश का पैसा बेवजह बर्बाद न हो। हां, तब प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं में जाने वाले पत्रकारों को जरूर कोफ्त होती थी कि इसके लिए उन्हें अपना पैसा खर्च करना पड़ता था। मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी पत्रकारों को विदेश यात्राओं पर ले जाने की परंपरा पर अब पूर्ण विराम लगा दिया है।

पद पर रहते परिजनों को राजनीति में आने से रोका
मोरारजी देसाई और गुलजारी लाल नंदा ने पद पर रहते कभी अपने परिजनों को राजनीति में आने का अवसर नहीं दिया। आज तो हालत यह है कि राजनीति को खानदानी पेशा समझने वाले कई नेता पीढ़ी दर पीढ़ी इसे विरासत के रूप में अपने परिजनों को सौंपने के लिए एड़ी-चोटी एक किये रहते हैं। कुछ दलों के मुखिया तो ऐसे हैं, जिन्होंने जीते जी अपना कुनबा राजनीति में उतार दिया है।

मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव के परिवार इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। राजनीति में परिवार को प्रश्रय देने की परंपरा ने ही कार्यकर्ताओं का घोर अभाव राजनीतिक दलों के सामने खड़ा कर दिया है। हाल ही संपन्न हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इशारे से इस पीड़ा का इजहार किया था। उन्होंने भाजपा सांसदों को संबोधित करते हुए कहा था कि उन्हें दुख है कि वे सांसदों के परिजनों को टिकट नहीं दिलवा सके। दरअसल मोदी यह बताना चाहते थे कि परिवारवादी राजनीति का हश्र यूपी में देख लीजिए और इससे सदैव बचे रहिए।